So-called mahaprayan is deliberate slander
Those who are following so-called mahaprayan are doing sin because they are going against Guru's wishes. Such persons must face the consequences.
Ananda Marga Caryacarya states, "Not to call a thing what it is, but to call it something else, is known as slander. Therefore those who in the name of the beginningless, endless, formless Brahma worship idols [tomb], are indulging in deliberate slander. You must not give indulgence to this type of Mahapápa (great sin).
References
Caryacarya - II, Sadhana, Point #18
In the light of this divine guideline, it becomes absolutely clear that the so-called Mahaprayan observance — the worship or veneration of a tomb or physical memorial — is a violation of the Guru’s expressed instructions.
Parama Purusa, the Supreme Consciousness, is beginningless, endless, and formless. To associate Him with any physical location, structure, or form is to limit the Infinite and to deny His omnipresence. Baba has repeatedly warned that such practices amount to materialism disguised as devotion and are antithetical to true spirituality.*
Those who knowingly promote or participate in the so-called Mahaprayan ceremony are thus committing a great spiritual offense. It is a sin not merely of ignorance, but of conscious disobedience to the will of the Guru — a Mahápápa. Such individuals must inevitably face the consequences of going against Dharma, for no one can escape the law of cause and effect (Karmaphala).*
True devotees of Shrii Shrii Anandamurtiji must instead follow His living idealogy— Sádhaná, Sevá, and Sacrifice — and realize that the Guru is ever-living, ever-present, and eternal. The true Mahaprayan is the death of ignorance and ego, not the remembrance of a so-called physical end*.
Let us therefore remain steadfast in ideological purity, reject all forms of pseudo-devotion, and uphold the glory of the living Guru within and without.
तथाकथित “महाप्रयाण” एक सुनियोजित अपवाद है
जो लोग तथाकथित महाप्रयाण का पालन या समर्थन कर रहे हैं, वे वास्तव में गुरु के निर्देशों के विरुद्ध जाकर पाप कर रहे हैं। ऐसा करना न केवल अज्ञान का परिचायक है, बल्कि यह जानबूझकर की गई गुरुद्रोह की श्रेणी में आता है, जिसके परिणामों से कोई नहीं बच सकता।*
आनंद मार्ग चर्याचर्य (भाग–2 साधना, बिंदु 18) में स्पष्ट रूप से कहा गया है —
“किसी वस्तु को उसका वास्तविक नाम न लेकर कुछ और कहना ‘अपवाद’ कहलाता है। अतः जो लोग अनादि, अनंत, निराकार ब्रह्म के नाम पर मूर्ति या समाधि की पूजा करते हैं, वे जानबूझकर अपवाद कर रहे हैं। इस प्रकार के ‘महापाप’ को किसी भी रूप में सहन नहीं किया जाना चाहिए।”*
इस दिव्य निर्देश के आलोक में यह पूर्ण रूप से स्पष्ट है कि तथाकथित महाप्रयाण का पालन — अर्थात समाधि या किसी भौतिक स्मारक की पूजा या वंदना — गुरु के प्रत्यक्ष आदेश का उल्लंघन है।
परम पुरुष, जो आदि, अनंत और निराकार हैं, उन्हें किसी विशेष स्थान, रूप या संरचना से जोड़ना उनकी अनंतता को सीमित करना और उनकी सर्वव्यापकता का निषेध करना है।*
बाबा ने अनेक बार चेताया है कि इस प्रकार की पूजा–पद्धतियाँ भौतिकतावाद का एक छद्म रूप हैं — जो बाह्य भक्ति के नाम पर आंतरिक आध्यात्मिकता का अपमान करती हैं।*
अतः जो लोग यह जानते हुए भी तथाकथित महाप्रयाण समारोह को बढ़ावा देते हैं या उसमें भाग लेते हैं, वे एक गंभीर आध्यात्मिक अपराध कर रहे हैं।*
यह केवल अज्ञान का परिणाम नहीं, बल्कि गुरु की आज्ञा का साक्षात् उल्लंघन है — एक महापाप।
ऐसे लोग धर्म के विरुद्ध आचरण करने के कारण कर्मफल के शाश्वत नियमों से कभी नहीं बच सकते।
सच्चे आनंदमार्गी, श्रीश्री आनंदमूर्तिजी के जीवंत आदर्श — साधना, सेवा और बलिदान — को अपनाते हैं और जानते हैं कि गुरु सदा जीवित, सर्वव्यापी और सनातन हैं।
वास्तविक महाप्रयाण किसी शारीरिक घटना का नहीं, बल्कि अज्ञान और अहंकार के अंत का प्रतीक है।
अतः आइए — हम सब आदर्श की शुद्धता में दृढ़ रहें,
सभी प्रकार की कपोल–कल्पित भक्ति और पाखंडपूर्ण आडंबरों को अस्वीकार करें,
और जीवंत गुरु की महिमा को — अपने अंतःकरण और आचरण — दोनों में प्रतिष्ठित करें।
তথাকথিত “মহাপ্রয়াণ” এক পরিকল্পিত অপবাদ
যারা তথাকথিত মহাপ্রয়াণ পালন বা সমর্থন করছে, তারা প্রকৃতপক্ষে গুরু’র নির্দেশের পরিপন্থী হয়ে পাপাচার করছে।
এটি শুধু অজ্ঞতার ফল নয়, বরং একটি সচেতন গুরুদ্রোহ, যার পরিণাম থেকে কেউ রেহাই পাবে না।
আনন্দ মার্গ চার্যাচার্য (দ্বিতীয় খণ্ড, সাধনা, বিন্দু ১৮)-তে স্পষ্টভাবে বলা হয়েছে —
> “কোনো বস্তু বা ঘটনার প্রকৃত পরিচয় না দিয়ে তাকে অন্য নামে ডাকা ‘অপবাদ’।
অতএব যারা অনাদি, অনন্ত, নিরাকার ব্রহ্মের নামে মূর্তি বা সমাধির পূজা করে, তারা ইচ্ছাকৃতভাবে অপবাদ দিচ্ছে।
এজাতীয় ‘মহাপাপ’-এর কোনো প্রকার প্রশ্রয় দেওয়া চলবে না।”
এই দিভ্য নির্দেশের আলোকে একথা নিঃসন্দেহে স্পষ্ট — তথাকথিত মহাপ্রয়াণ পালন, অর্থাৎ সমাধি বা কোনো ভৌত স্মারকের পূজা-অর্চনা, গুরু’র প্রত্যক্ষ নির্দেশের লঙ্ঘন।
পরম পুরুষ, যিনি অনাদি, অনন্ত ও নিরাকার — তাঁকে কোনো নির্দিষ্ট স্থান, রূপ বা স্থাপনার সঙ্গে যুক্ত করা মানেই তাঁর অনন্তত্বকে সীমাবদ্ধ করা এবং তাঁর সর্বব্যাপীত্বকে অস্বীকার করা।
বাবা বহুবার সতর্ক করেছেন — এই ধরনের ভক্তি আসলে ভোগবাদ ও বস্তুবাদেরই এক ছদ্মরূপ, যা বাহ্যিক ভক্তির আড়ালে আধ্যাত্মিকতার অবমাননা করে।
অতএব যারা জেনেশুনে তথাকথিত মহাপ্রয়াণ অনুষ্ঠান প্রচার করে বা তাতে অংশ নেয়, তারা একটি গভীর আধ্যাত্মিক অপরাধ করছে।
এটি নিছক অজ্ঞতার ফল নয়, বরং গুরু’র আজ্ঞার প্রতি সরাসরি অবাধ্যতা — এক মহাপাপ।
ধর্মের বিরুদ্ধাচরণকারী এরা কর্মফল-এর অনিবার্য নিয়ম থেকে কখনোই মুক্তি পাবে না।
সত্যিকারের আনন্দমার্গী হচ্ছেন সেইজন, যিনি শ্রীশ্রী আনন্দমূর্তিজীর জীবন্ত আদর্শ — সাধনা, সেবা ও ত্যাগ — জীবনপথে বাস্তবায়িত করেন এবং উপলব্ধি করেন যে গুরু চিরঞ্জীব, সর্বব্যাপী ও অনন্ত।
বাস্তব মহাপ্রয়াণ কোনো দেহগত সমাপ্তির নাম নয়, বরং অজ্ঞতা ও অহংকারের মৃত্যু।
আসুন — আমরা সকলে আদর্শের বিশুদ্ধতা-য় দৃঢ় থাকি,
সব ধরনের কপট ভক্তি ও ছলনাময় আচার ত্যাগ করি,
এবং জীবন্ত গুরু’র মহিমাকে অন্তর ও আচরণ — উভয়ক্ষেত্রেই প্রতিফলিত করি।
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