आदिपिता शिव का रहस्यमयी और गौरवमयी इतिहास*
आनंद मार्ग के प्रवर्तक श्री श्री आनंदमूर्ति जी द्वारा रचित नमः शिवाय शान्ताय से लिया गया है।👇
आदिपिता शिव का रहस्यमयी और गौरवमयी इतिहास*
जय शुभ वज्रधर शुभ्र कलेवर
व्याघ्राम्बर हर देही पदम्।।
जय विषाणनिनादक क्लेशविदुरक
सर्वाधिधारक देही पदम्।।
जय अदीपिता आदिदेव मंत्रेश महादेव
भावातीत अभिनव देही पदम्।।
रजतगिरिनिभ मधुमय दुर्लभ
आनंद अमिताभ देही पदम्।।
जय सत्य सनातन परम पदम्।।
सर्वप्रथम यह देखा जाए कि "शिव" शब्द का अर्थ क्या है? तंत्र, वेद और जो कुछ मौखिक या लिखित प्रमाण मिलते हैं, उनसे हम "शिव" शब्द के तीन अर्थ पाते हैं। "शिव" का पहला और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अर्थ है "कल्याण" या "मंगल"। शिव अपने हर रूप में कल्याण करते हैं। बोलचाल की भाषा मे शिव अपने पंचमुख से जगत का कल्याण करते रहते हैं। इसका यह अर्थ नही की शिव के पाँच शीश थे बल्कि उनके कल्याण करने का तरीका ऐसा था जिसके द्वारा उन्हें शास्त्रों में वामदेव, कालाग्नि ये दोनों बाईं ओर, दक्षिणेश्वर और ईशान दोनो दाहिनी ओर और मध्य में सबके नियंत्रक कल्याणसुन्दरम के रूप में परिभाषित किया जाता है।
शिव शब्द का द्वितीय अर्थ है चिति शक्ति। ज्ञान का सर्वोच्च शिखर। सृष्टि के समस्त बंधनो से परे एक ऐसी परम सत्ता जिसे परिभाषित नही किया जा सकता।
शिव शब्द का तृतीय अर्थ है - सदाशिव - जिन्होंने लगभग 7000 वर्ष पूर्व इस धरती पर महासंभुति के रूप में जन्म लिया था और धरती के कण कण को पवित्र कर गए। जिन्होंने अपनी सम्पूर्ण सत्ता को जीव मात्र के कल्याण में लगा दिया। ध्यान रहे कि यहाँ पर केवल मानव कल्याण की बात नही कही गई क्योंकि सृष्ट जगत में मानव जाति के अतिरिक्त पशु पक्षी भी हैं, वृक्ष लताएं भी हैं। शिव सभी के कल्याण के लिए अपना सर्वस्व लुटा दिए थे।
इस धरती पर मनुष्य का जन्म लगभग दस लाख वर्ष पहले हुवा था किंतु मानव सभ्यता अधिक से अधिक 15000 वर्ष पुरानी है। प्राचीन ऋग्वेद के प्रथम मंडल के श्लोक को यदि सभ्यता का सूत्रपात समझा जाये तो वह भी 15000 वर्ष पुराना नही होगा। अनुमानतः 7000 वर्ष पूर्व भगवान शिव इस इस धरती पर मानव के रूप में जन्म लिए थे । वह समय ऋग्वेदीय युग समाप्ति की ओर अग्रसर था और यजुर्वेदीय युग का आगमन हो रहा था । इसका प्रमाण इस प्रकार मिलता है कि ऋग्वेद के आरम्भ में भगवान् शिव की चर्चा नहीं है किन्तु अंतिम काल में है।
शिव के समय मे उत्तर पश्चिम दिशा से आर्यों का भारत आगमन प्रारंभ हो चुका था। बहुत से आर्यगण आ चुके थे, बहुतों का आगमन जारी था और बहुत से आर्य आने को अति उत्सुक थे। उन दिनों मध्य एशिया तथा पूर्वी यूरोप से लेकर दक्षिण पूर्व एशिया तक अधिकांश क्षेत्रों में एक ही प्रकार की भाषा का प्रचलन था। जो भाषा दक्षिण पूर्व एशिया में प्रचलित थी वह संस्कृत थी और उत्तर पश्चिमी भूभाग पर वैदिक भाषा का प्रचलन था। वैदिक भाषा ने आर्यों के साथ साथ भारत मे पदार्पण किया किंतु संस्कृत बाहर से नही आई वह भारत की ही भाषा थी। ऋग्वेद उन दिनों लिखित रूप में उपलब्ध नही था क्योंकि उस कालखंड का मनुष्य लिखना पढ़ना नही जानता था। मनुष्य को अक्षर ज्ञान पिछले पाँच से सात हजार वर्ष पूर्व ही प्राप्त हुवा है। इसी बीच उसने ब्राम्ही लिपि, खरोष्टि लिपि और इसी लिपियों से जन्मी अन्य लिपियों को भी सीखा। सारदा, नारदा और कुटिला लिपियाँ ब्राम्ही लिपि का ही परिवर्तित रूप है। श्रीहर्ष लिपि, कुटिला लिपि का परिवर्तित रूप है। वर्तमान में बंगला भाषा श्रीहर्ष लिपि में लिखी जाती है।
तंत्र का जन्म भारत में हुवा है। शिव के पहले भी कश्मीरी तंत्र और गौड़ीय तंत्र जैसी तंत्र की शाखाएं विक्षिप्त और अमर्यादित रूप में विद्यमान थी। शिव ने तंत्र को विधिबद्ध स्वरूप प्रदान किया।
तंत्र और वेद दोनो में हमें शिव का उल्लेख मिलता है। उन दिनों अक्षर ज्ञान था ही नहीं इसलिए पुस्तक लिखना संभव नही था, अतः शिक्षा गुरु शिष्य परंपरा से ही प्राप्त होती थी। और वेद में भी कहा गया है कि गुरु के पास जाकर कान लगाकर उनकी बात सुन लेना होगा। इसलिए वेद को श्रुति कहा जाता है। श्रुति का अर्थ है "कान"। जो बात कान से सुनकर सीखी जाती है, उसे श्रुति कहते हैं।
शिव का समय, भारत का द्वंदात्मक काल था। बाहर से आर्यों का आगमन हो रहा था और उस समय भारत का भी अपना तंत्र सम्मत धर्म था। उस संघर्षमय परिवेश में शिव का आविर्भाव हुवा।
ऋग्वेद में हम जिस सभ्यता का आभास पाते हैं, उसे प्राक-शिव युग और जो यजुर्वेद में जो विवरण मिलता है इसे शिवोत्तर युग कहना अनुचित नही होगा। ऋग्वेद के आदिकाल और मध्यकाल में दिखाई देता है कि उन दिनों किसी नियमबद्ध समाज का गठन नही हो सका था। सामाजिक जीवन मे कुछ भी विधिबद्ध नही था। मातृशासित समाज व्यवस्था समाप्ति की ओर अग्रसर थी और पितृशासित व्यवस्था का सूत्रपात हो रहा था। उस कालखंड में इन दोनों व्यवस्थाओं को एक दूसरे से बांधकर रखने जैसी कोई परंपरा नही थी। इसी कारण मैट्रिलिनीयल ऑर्डर का प्रभाव आज से ढाई हजार वर्ष पहले तक, अर्थात गौतम बुद्ध और महावीर जैन के समय तक चलता रहा। शिव के समय मैट्रिलिनीयल ऑर्डर को लोग मानते तो थे पर मैट्रियारकल आर्डर (स्त्री के वर्चस्व वाली समाज व्यवस्था) लगभग समाप्त हो चुकी थी। पैट्रीयारकल आर्डर के स्थापित होने के बाद पैट्रीलिनीयल ऑर्डर का मान्यता मिलना आवश्यक था। इसे भारत मे पितृगत गोत्र व्यवस्था कहा जाता है।
एक-एक जनगोष्ठी एक-एक पहाड़ पर निवास करती थी। उस पहाड़ के जो प्रधान पुरुष अर्थात प्रधान पिता थे, उन्हीं के नाम से गोत्र का नाम या कहना चाहिए कि पहाड़ का नाम चलता था। संस्कृत भाषा मे पहाड़ को ही गोत्र कहा जाता है। मान लो किसी पहाड़ के प्रधान पुरुष महर्षि कश्यप थे, तो उस पहाड़ को कश्यप गोत्रीय पहाड़ कहा जाता था। किसी अन्य पहाड़ पर महर्षि भार्गव रहते थे तो वहाँ पर रहनेवाली जनगोष्ठी भारद्वाज गोत्र के नाम से पहचानी जाती थी। इसी प्रकार से एक-एक ऋषि या आदिपिता के नाम से गोत्र का निर्धारण होता था और इसी गोत्र धारा के आधार पर पैट्रीयारकल ऑर्डर चलता था।
शिव ने किसी धारा के संबंध में कोई दबाव नही डाला और मनुष्यों को स्वाभाविक पथ पर ही चलने दिया। शिव ने अपने अनुगामियों से कहा, "तुम लोग इस गोत्र और उस गोत्र की उलझन में पड़कर मनुष्य मनुष्य के बीच मे संघर्ष को मत बढ़ाओ। शिव के पहले अलग अलग पहाड़ों पर रहनेवाली जनगोष्ठी के मध्य संघर्ष होता रहता था जिसे शिव ने बंद करवा दिया। उन्होंने कहा, "तुम सभी लोग, जो मुझसे प्रेम करते हो, जो मेरी बातों को मानते हो, तुम सभी मिल जुलकर एक उदार और परोपकारी जीवन पद्धति का अनुसरण करो। एक विधि-विधान सम्मत प्रशासनिक व्यवस्था का पालन करो और घोषणा करो, आज से गोत्र के नाम पर हम एक दूसरे से अलग नही रहेंगे और मानवीय संबंधों में बाधा उत्पन्न करनेवाली दीवार निर्मित नही होने देंगे।" हम सभी शिव का अनुसरण करने वाले हैं और हम सभी का गोत्र, "शिव गोत्र" है। हम सभी अपने अपने गोत्र को छोड़कर "शिव गोत्र" में सम्मिलित हो गए हैं - "आत्म गोत्रम परित्यज्ये शिवगोत्र प्रविशतु।" इस प्रकार समाज को एक विप्लवी विचारधारा देकर, शिव ने भावप्रवणता (Geo Sentiment) और सामाजिक भावप्रवणता (Socio Sentiment) जैसी संकीर्ण मानसिकता को चूर्ण विचूर्ण कर दिया।
सामाजिक क्षेत्र में भी, मनुष्य के बीच भेदभाव पैदा करनेवाली जो विचारधारा थी, जो व्यवधान थे, उन्हें समाप्त करने के लिए भी शिव प्रयत्नशील थे। शिव की तीन पत्नियाँ थी :- आर्य कन्या, गौरवर्णा पार्वती, अनार्य कन्या, कृष्णवर्णा काली और मंगोलिय कन्या, पीतवर्णा गंगा। उन्होंने मनुष्यों के बीच जो भेदभाव थे, उन्हें मिटाकर सभी लोगों के बीच एकता लाने की चेष्टा की थी।
शिव ने देखा कि ऋग्वेद के युग मे, छंद तो थे, लेकिन राग रागिनी का आविष्कार नही हुवा था। केवल छंदों के सहारे ही तो गाना नही गाया जा सकता था। वैदिक युग मे या कहना चाहिए कि ऋग्वेद के प्रारंभ से ही सात छंद थे - गायत्री, उष्णिक्, त्रिष्टुप, अनुष्टुप, जगती, वृहती और पंक्ति। ऋग्वेद के तृतीय मंडल का दसवां सूक्त सावित्री ऋक् है जिसे गायत्री छंद में रचा गया है जो वर्तमान में भुलवश गायत्री मंत्र कहा जाता है। अर्थात, उस युग मे छंद से परिचय था पर मनुष्य सुरसप्तक से अनजान थे। सात पशु पक्षियों की ध्वनि को केंद्र में रखकर उनके आधार पर शिव ने सुरसप्तक का निर्माण किया और तत्कालीन छंद को और मधुरता प्रदान कर दी।
वर्तमान पृथ्वी का संगीत सम्पूर्णत: सुरसप्तक पर आधारित है। यह अत्यंत दुःख का विषय है कि शिव ने जिस गंभीर साधना से संगीत प्रारंभ किया था, मनुष्य उस साधना को भूलते जा रहे हैं और कहीं उसे आजीविका का साधन और कहीं भोग-विलास का माध्यम समझ बैठे हैं।
ऐसी बात नही कि शिव ने केवल गान या संगीत को ही नियमबद्ध किया हो, उसे व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया हो। ध्वनि विज्ञान के विविध रूपों को लेकर उन्होंने जो अनुसंधान किया, आज भी मनुष्य उसका सुफल भोग रहा है। ध्वनि विज्ञान, स्वर विज्ञान पर निर्भरशील है। मनुष्य के श्वास प्रश्वास पर निर्भरशील है। उसी के आधार पर शिव ने छंदमय जगत को मुद्रा प्रदान की। छंद के साथ उन्होंने नृत्य की संगति बैठाई और मुद्रा को भी उसके साथ जोड़ दिया। शिव के पहले अर्थात ऋग्वेदीय समाज मे छंद थे, किंतु मुद्रा नही थी। शिव ने स्वयं ही वाद्य को सही ढंग से बजाने की पद्धति का अविष्कार किया। उस युग मे शिव के अलावा और कोई था ही नहीं जो ये सब आविष्कार करता। उन्होंने अपने ज्ञान को फैलाया और महर्षि भरत जैसे उपयुक्त पात्र को उन्होंने शिक्षा दी और कहा, "विश्व मे जो भी यह विद्या सीखना चाहे, उसकी जाति या कुल का विचार किये बिना उसे यह विद्या सिखाना होगा।
शिव के पहले मानव समाज मे विवाह की प्रथा नही थी। विवाह की प्रथा नही होने के कारण माँ को पहचाना जा सकता था पिता को नहीं। शिव ने विवाह की प्रथा को आरम्भ किया और वह व्यवस्था समाज मे आज भी प्रचलित है। विवाह शब्द का मूल अर्थ है स्वयं को विशेष नियम के अनुसार चलाना। उसका नाम है शैव विवाह। शैव विवाह में जाति और कुल का विचार किये बिना, वर और वधु पूर्ण दायित्व लेकर ही विवाह करेंगे।
शिव ने मानव जाति को जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान दिया है वह है - "धर्मबोध"। यहाँ हमें याद रखना होगा कि शिव के समय, आर्य लोग भारत मे आ चुके थे और उनका आगमन जारी था। उन लोगों के मध्य किसी भी प्रकार का नियमबद्ध धर्मबोध, कोई धर्म चेतना या कोई धर्मेशणा नहीं थी। कई ऋषि थे और उनका दृष्टिकोण एक दूसरे से भिन्न था।
"वेदा: विभिन्ना: स्मृत्या विभिन्ना:
नैक: मुनिरस्य मतं न भिन्नम"
[अर्थात, वेदों के दृष्टिकोण अलग अलग हैं। स्मृतियों की विचारधारा भी एक दूसरे से अलग है। ऋषि मुनियों के मत भी अलग अलग हैं। ]
पितृशासित समाज के आने के बाद एक जनगोष्ठी के लोग, जोर जबरदस्ती करके दूसरी जनगोष्ठी की कन्याओं का अपहरण करके, उन्हें अपने गोत्र में सम्मिलित कर लेते और उन्हें अपने पहाड़ पर रख लिया करते थे। उन दिनों, विभिन्न जंगोष्ठियों में संग्राम होते ही रहते थे। लड़ाई में जो लोग हारते, उनके पुरुष क्रीतदास बनाये जाते थे और कन्याएं पुरुषों के घर में रहने लगती थी।
ऋषिगण जो कहते, बाकी सभी लोग उसी को मान लिया करते थे। ऋषिगण के वक्तव्य को "आर्ष मत" या "आर्ष धर्म" कहा जाता था। वेदों का अपना कोई धर्म नही था। विभिन्न ऋषियों, मुनियों के विभिन्न मतों से मिलकर "आर्ष मत" या "आर्ष धर्म" बना। वह आर्ष मत भी समय के परिवर्तन के साथ बदल जाया करता था। ऋग्वेद के समय जो आर्ष मत था, यजुर्वेद के समय वह परिवर्तित हो गया था। अर्थववेद के समय वह पुनः बदल गया था। वेद अनुयायी किसी एक जगह के नही थे। मंत्रपाठ के रीति रिवाज और अक्षरों के उच्चारण भी वेदों के अनुयायी बदल दिया करते थे।
तत्कालीन भारत के बाशिंदों अनार्यों का आर्यकरण नहीं किया जाता था या उन्हें आर्यों के समकक्ष नही समझा जाता था वरन उन्हें आर्यों का दास बनाया जाता था। अनार्यों और नारियों को वेदों के नियंत्रक मंत्र ॐ का उच्चारण भी करने नही दिया जाता था। शिव ने उन परिस्थितियों को देखा और समझ लिया कि आर्ष धर्म वस्तुतः धर्म नही है। उन्होंने मनुष्य के मन के अंदर झाँक कर देखा और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मनुष्य सम्पूर्ण रूप से प्रशान्ति चाहता है। यज्ञ करके, यज्ञ की आग में पशुओं की हत्या करके मनुष्य शांति प्राप्त नहीं कर सकता। हो सकता है कि माँस खाकर उसकी जीभ तृप्त हो जाये, उसे सुख भी मिले, किन्तु शांति नही मिल सकती। इसलिए शिव ने मनुष्य को उसके अंतर्मन में छुपकर बैठे हुवे परमपुरुष को पाने का रास्ता दिखलाया। उस पथ को प्राप्ति का पथ न कहकर सम्प्राप्ति का पथ कहना, परमा शांति का पथ कहना उचित होगा। शिव के इसी पथ को शैव मत या शैव धर्म कहा जाता है।
यह जो शैव तंत्र है, एक ओर तो मनुष्य को चरम सत्य की ओर लिए जा रहा था और साथ ही साथ यह भी समझा रहा था कि व्यवहारिक जगत की उपेक्षा मत करो और उसके साथ सामानजस्य बनाकर चलो। ये शिक्षा देकर शिव लोगों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर रहे थे। शिव कह गए हैं - "वर्तमानेषु वर्तेत"। तुम अपने मन के भीतर, आत्मा के अंदर जितना भी चाहे बढ़ते चलो - चरैवेति, चरैवेति। किंतु बाहरी जगत में जो हो रहा है, उसकी उपेक्षा मत करो। बाहरी जगत की उपेक्षा करने से तुम्हारे अंतर्जगत की शांति में बाधा पहुँचेगी। ये जो शैव मत या शैव धर्म है, यही भारत का प्राचीन धर्म बन गया - प्राणधर्म कहलाया। शिव का धर्म परमपुरुष की प्रप्ति का धर्म है।
शिव सभी को अपनी शरण मे आश्रय देते थे और सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण के लिए सदैव प्रयासरत थे। जिन लोगों से आर्य घृणा करते थे, उन असुरों ने भी शिव की शरण माँगी। शिव ने उन्हें भी शरण दिया। असुर किन्हें कहा जाता था? मध्य एशिया में असीरिया नाम का एक देश था। उस देश के लोग अनार्य थे, घोर आर्य विरोधी। आर्य उन लोगों को घोर घृणा करते थे। भारत मे आज भी पलामू जिला और अन्य अंचलों में असुर उपजाति के कुछ लोग निवास करते हैं। असुर का मतलब पचास फुट लंबे, भयानक नाक कान और दांतवाले जीव नही होते। वे भी हमारी तुम्हारी तरह मनुष्य होते हैं। अंतर केवल इतना है कि वे लोग आर्ष मत, आर्ष धर्म, और आर्यों से संबंधित किसी भी रीति रिवाज को नही मानते थे। इसलिए उनकी हत्या करना आर्यगण बड़ा पुण्य कार्य मानते थे।
यह देखा जा सकता है कि असुर लोग भी शिव के पास जाते हैं, उनकी स्तुति करते हैं और उनसे वरदान भी पाते हैं। शिव उनकी सहायता के लिए देवताओं के विरुद्ध खड़े हो जाते हैं। देवता का अर्थ है - वही आर्य। आर्यों ने असुरों का ध्वंस चाहा था, आर्यों ने ऑस्ट्रेलिया की "माउरि" जाति को लगभग समाप्त कर दिया। उन्होंने भारत की अनेक उपजातियों को भी समाप्त कर दिया। वे लोग असुरों को भी समाप्त करना चाहते थे इसलिए असुर भी उन्हें मारना चाहते थे। शिव ने असुरों का पक्ष लिया और उनकी रक्षा की। शिव ने कहा - "यदि मैं उन्हें नही बचाऊं तो उन्हें कौन बचायेगा? ये लोग किसके शरण मे जाएंगे?" आर्यगण ही श्रेष्ठ हैं और असुर श्रेष्ठ नही हैं इस युक्ति को शिव ने स्वीकार नही किया। शिव ने सदा चाहा कि और कार्य सम्पन्न करते रहे जिस से आर्य, अनार्य, मंगोल और अन्य जंगोष्ठियों के मनुष्य शांतिपूर्ण ढंग से जीवन यापन कर सकें। शिव ने शांतिपूर्ण ढंग से मिलजुलकर रहने के लिए सबके सामने आदर्श रखा और कहा - "तुम सब परमपिता की संतान हो। तुम सभी को धरती पर भाई भाई की तरह रहने का अधिकार है। तुम सभी इस अधिकार को प्राप्त कर सको। इस आदर्श की स्थापना कर सको। तुम्हारी सहायता के लिये मैं सदा प्रस्तुत हूँ।"
शिव के द्वारा प्रदत्त तांडव नृत्य एक ऐसा अपूर्व अविष्कार है जिसके बारे में अतीत में किसी भी मनुष्य ने सोचा ही नही था और भविष्य में भी इसका विकल्प खोजना मनुष्य की क्षमता के बाहर की बात है। छंद, मुद्रा और ग्रंथियों के प्रभाव के सामानजस्य की बात को ध्यान में रखकर ही तांडव नृत्य का अविष्कार किया गया है। इस नृत्य से केवल शरीर का ही कल्याण नही होता, वरन यह मन के भी उत्कर्ष का साधन है और इससे आत्मा की भी उन्नति होती है। शिव ने पार्वती की सहायता से ललित मार्मिका एवं अन्य प्रकार के नृत्यों का अविष्कार किया और लोगों को सिखाकर, मानव समाज को उन नृत्यों से परिचय करवाया।
जब से धरती पर जीव की उत्पत्ति हुई है तभी से औषधियाँ भी उत्पन्न हुई है। पशु पक्षी सभी किसी न किसी परिस्थिति में किसी न किसी औषधि का सेवन करते रहे हैं। अर्थात सभी जीव जंतु औषधि के बारे में थोड़ा बहुत जानते थे। शिव के पहले भी आयुर्वेद था। वेद छह शाखाएं हैं - "छंद, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, ज्योतिष और आयुर्वेद या धनुर्वेद। शिव के समय भारत में आयुर्वेद था किंतु वास्तविकता यह थी कि उन दिनों लोगों को हठात या संयोग से जानकारी में आये औषधिगुण सम्पन्न पौधों या वस्तुओं का ही ज्ञान था किंतु कोई नियमबद्ध स्वरूप विद्यमान नही था। शिव ने उसे नियमबद्ध स्वरूप प्रदान किया, उसका नाम "वैद्यकशास्त्र" रखा गया। शिव ने वैद्यकशास्त्र में शल्यकरण, विशल्यकरण और शव की चीर फाड़ सभी कुछ सम्मिलित किया।
शिव लगभग 7000 वर्ष पूर्व आये थे। शिव युग के बहुत बाद में अर्थात लगभग 2500 वर्ष पहले भारत मे बौद्ध धर्म मत और जैन धर्म मत मानने वालों की बाढ़ सी आ गई थी। किंतु जिन दिनों जैन मत को मानने वालों की प्रबलता थी, उन दिनों में भी, धरती के भीतर ही भीतर बननेवाले पानी के झरने की तरह, जनसाधारण के बीच शैव धर्म को माननेवाले भी अच्छी बड़ी संख्या में थे। बंगाल में जब बौद्ध और जैन मतों का प्राबल्य था, तब भी बंगाल के इन मूल निवासियों ने शैव धर्म को नही छोड़ा। ऊपरी सतह पर बौद्ध और जैन मत का प्रभाव दिखाई पड़ता था पर आंतरिक सतह पर शैव धर्म ही प्रतिष्टित था। आज उन लोगों ने पौराणिक धर्म को स्वीकार कर लिया है पर उन दिनों वे लोग पूरी तरह शैव धर्म का ही पालन करते थे।
शैव धर्म के बाद भारत मे बौद्ध मत और जैन मत का आविर्भाव हुवा। बौद्ध मत और जैन मत शक्तिहीन थे, इसलिए कालांतर मर उनकी अवनति होती गई। जब जैन मत और बौद्ध मत का पतन हो रहा था साथ ही साथ पौराणिक धर्म का अभ्युत्थान हो रहा था। उस मध्यवर्तीय कालीन अवस्था मे, अर्थात बौद्ध धर्म और पौराणिक धर्म ( शैव धर्म से इसका कोई संबंध नही था ) के संयोजन से "नाथधर्म" नाम से एक नए मतवाद ने जन्म लिया। इस धर्म के गुरुओं के नाम के अंत मे "नाथ" शब्द रहता था जैसे आदिनाथ, मत्स्येंद्रनाथ, गोरखनाथ इत्यादि। उत्तरप्रदेश, बिहार और बंगाल में नाथ धर्म का व्यापक प्रभाव था। इस नाथ धर्म मे बौद्ध धर्म से बहुत कुछ लिया गया है, तथापि इन्होंने शिव को अपना अधिष्ठाता के रूप में स्वीकार किया। किंतु यह न तो शैव धर्म था और न ही शिव द्वारा प्रवर्तित कोई विचारधारा।
अपनी अवनति के समय केवल बौद्ध मत और जैन मत ने ही शिवाचार का सहारा नही लिया वरन पौराणिक मतावलंबियों ने भी यही किया। पौराणिक मत की पाँच शाखाएं हैं - शैवाचार, शाक्ताचार, वैष्णवाचार, सौराचार और गणपत्याचार। बौद्ध धर्म के पतन और पौराणिक मत के अभ्युत्थान के समय पश्चिम भारत मे महाराष्ट्र अंचल में गणपत्याचार प्रारंभ हुवा। अर्थात गणपति या गणेश को केंद्र में रखकर एक नया धर्म मत विकसित हुवा। उन्हीं दिनों बंगाल के किसी किसी भूभाग में शाक्ताचार का उद्भव हुवा जिसमें बलिदान आदि की प्रथा सम्मिलित थी। उन्हीं दिनों दक्षिण भारत मे शैवाचार और वैष्णवाचार दिखलाई दिये। बंगाल में तब तक वैष्णवाचार का आगमन नही हुवा था। बाहर से आकर बसे शाकद्वीपी ब्राम्हणों के मध्य सौराचार प्रचलित हुवा। ये लोग ज्योतिष चर्चा करते थे और सूर्य को अपना गृह देवता मानते थे। साराँश यह है कि बौद्ध और जैन मतों को छोड़कर तत्कालीन समाज ने इस पाँच पंथों को स्वीकार किया।
मध्यवर्तीकालीन युग मे बौद्ध मत एवं जैन मत लुप्त हो रहे थे और पौराणिक धर्म के उदय में आपस मे मेल मिलाप हो रहा था। उसी समय पौराणिक धर्म के प्रधान प्रवक्ता शंकराचार्य का आविर्भाव हुवा। शकराचार्य द्वारा प्रवर्तित पौराणिक धर्म संभवत: जनमानस में ठीक से स्थान नही बना पायेगा इसी आशंका से घबराकर, मवनोवैज्ञानिक तरीके से यह घोषित किया गया कि शंकराचार्य शिव के अवतार हैं। सच तो ये है कि भारत के जनमानस में शिव के अभूतपूर्व प्रभाव को देखकर ही, शंकराचार्य की बातों को शिव की बातें कहकर प्रचारित किया गया। उन्हें मालूम था कि भारत का जन साधारण, शिव की बातों को बिना किसी तर्क के स्वीकार कर लेगा। इसलिए उन्हें शंकराचार्य को शिव का अवतार घोषित करने की आवश्यकता महसूस हुई। ये घटना आज से लगभग 1300 वर्ष पहले घटी थी जो कि जनभावना का इस्तेमाल कर गुमराह किया गया किसी छल से कम नहीं।
शिव के समय मे तंत्र का जो व्यवहारिक स्वरूप सामने आया, उसमें विभिन्न शक्तियाँ तो हैं किंतु देवी-देवता नही हैं। देवी-देवता के सम्बंध में विवेचना करते समय और भी पीछे, अर्थात वैदिक युग मे जाना पड़ेगा क्योंकि उस युग मे देवी-देवता थे किंतु उनकी मूर्ति बनाकर पूजा करने की प्रथा नहीं थी। यज्ञादि के द्वारा उन देवी देवताओं की उपासना की जाती थी। इंद्र, अग्नि, वरुण इत्यादि सभी वैदिक देवता हैं। इनकी मूर्ति का निर्माण कर पूजा करने की प्रथा भी नहीं थी। यही कहा जाता था कि उनकी प्रतिमा नही है - ईश्वरस्य प्रतिमा नास्ति। प्रतिमा का रूप है प्रतिरूप अर्थात मूल वस्तु जैसी है उसी प्रकार एक और वस्तु को बनाना। इसी कारण कहा गया है की परमपुरुष के समान और कोई भी नहीं है। "तुला वा उपमा कृष्णस्य नास्ति।" अर्थात ईश्वर की प्रतिमा हो ही नही सकती। ये वैदिक काल की ध्यान धारण थी।
इसके बाद शैव तंत्र का युग आया। शैव तंत्र के युग में विभिन्न प्रकार की कालिका शक्तियाँ थी किंतु देवी देवता की मुर्तियाँ बनाकर पूजा करने की प्रथा नही थी। उसके बाद आया शिवोत्तर तंत्र - बौद्ध और जैन युग। इसी बौद्ध और जैन युग मे विभिन्न प्रकार के देवी देवताओं की मूर्ति बनाकर पूजा करने की प्रथा प्रचलित हुई। और इसी समय शिवोत्तर तंत्र आया जो कि वास्तव में शिव के समय के तंत्र की रूपांतरित विचारधारा थी जिसमे बौद्ध और जैन धर्म का प्रभाव शामिल हो गया था, और जिनके प्रभाव के कारण शिवोत्तर तंत्र की देवी देवताओं की मूर्ति पूजा का प्रचलन प्रारंभ हो गया।
पार्वती शब्द का अर्थ क्या है? आम बोलचाल में या फिर पौराणिक कथाओं में उन्हें पर्वतस्य कन्या अर्थात पर्वत की कन्या कह कर पुकारते हैं। पर्वत की तो मानव रूप में कोई कन्या वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संभव नही है अतः सही तरीका है कि पर्वत देशस्य कन्या इत्यर्थे पार्वती अर्थात पहाड़ी देश की कन्या। यह जो पार्वती है ये गौरी है अर्थात गौरवर्ण की आर्य कन्या थी। उन दिनों भारत मे भारत के प्राचीन निवासी (आष्ट्रिक - मंगोल - नीग्रोइड) और बाहर से आये हुवे आर्यों के मध्य अच्छा या प्रेम संबंध नही था। आर्यगण, भारत के मूल निवासियों को कभी असुर, कभी दानव, कभी दास और कभी शुद्र कहकर संबोधित किया करते थे।
आर्यों ने यहाँ के मूल निवासियों को अपने समाज मे स्थान नही दिया था वरन उनकी अवहेलना करते थे। जबकि आष्ट्रिक, मंगोल और नीग्रो इन तीनो के रक्त मिश्रण से जन्मे तत्कालीन भारत के प्राचीन मनुष्यों की अपनी सभ्यता थी, संस्कृति थी। वे भी उन्नत जीव थे, उनका भी तंत्र था और उनका भी चिकित्सा विज्ञान था। बाहर से आये हुवे आर्यों के साथ उनका बहुत लंबे समय तक संघर्ष चलता रहा। गौरी या पार्वती इन्हीं आर्यो के हिमालय निवासी राजा दक्ष की कन्या थी।
गौरी के साथ शिव का विवाह होने पर, अनेकों ने सोचा था कि आर्य और अनार्य भारत वासियों के मध्य मधुर संपर्क स्थापित होगा। दुख का विषय है कि शिव गौरी के विवाह के उपरांत भी आर्य और अनार्य के संबंध नही सुधर सके वरन उनका आपसी संघर्ष और तीव्र हो गया। आर्यगण और गौरी के पिता दक्ष, शिव की निरंतर निंदा करने लगे और अंततः शिव का अपमान करने के लिए उन्होंने शिव वर्जित यज्ञ का आयोजन किया। शिव की निंदा नही सह पाने के कारण, उसी यज्ञ स्थल पर पार्वती ने आत्मदाह करके अपने प्राण त्याग दिए।
पार्वती के आत्मदाह के बाद भारत में आर्य और आर्येत्तर मनुष्यों के संबंध मधुर होते गए। आजकल लोग दुर्गा नाम की पौराणिक देवी को मानते हैं, उनसे गौरी या पार्वती का कोई संबंध नहीं है। गौरी का पार्वती मानव कन्या थी और उनके दो हाथ थे। पौराणिक युग की यह दुर्गा देवी है उनके साथ शिव या उनके युग का किसी भी प्रकार का कोई संबंध नही है।
दुर्गापूजा मुख्य रूप से मार्कण्डेय पुराण पर आधारित है। देवी पुराण, कालिका पुराण, वृहत नंदिकेश्वर पुराण, दुर्गाभक्तिरंगिनी, देवी भागवत जैसे ग्रंथो पर आधारित है। इनमें से कोई भी ग्रंथ 1300-1400 वर्ष से अधिक पुराना नही है। उपरोक्त ग्रंथों के चुने हुवे 700 श्लोकों को मिलाकर मार्कण्डेय पुराण की रचना हुई है, उसे ही दुर्गा सप्तशती और उसी को कथ्य भाषा मे श्री श्री चण्डी कहा गया। शिव के समय ये सब कुछ नही था। शिव के साथ इनका कोई संबंध नही है।
शिव की पत्नी गौरी का एक पुत्र था - भैरव। जो तंत्र साधना करता है, उसे भैरव कहा जाता है। शिव की दूसरी पत्नी काली की पुत्री थी भैरवी। तंत्र साधना करने वाली नारी को भैरवी कहा जाता है। तथ्य केवल यह है कि भैरवी ने अपने पिता से साधना सिखा था और वे तंत्र साधना करती थी। किंतु काली को यह भय सताया करता था कि साधना करते समय उनकी पुत्री कहीं किसी विपत्ति में न फँस जाए। इसलिए एक नीरव रात्रि में वे अपनी पुत्री की खोज खबर लेने गई थी। उस समय शिव भी वहीं श्मशान में ध्यान मग्न बैठे हुवे थे। उस अंधेरी रात में चलते समय काली का पैर शिव पर लग गया। उन्होंने लज्जावश अपनी जीभ काट लिया। शिव का ध्यान भंग हो गया। शिव ने पूछा "कस्त्वं"? तुम कौन हो? काली शिव की पत्नी थी। वे यह तो नही कह सकती थी कि वह भैरवी हैं। पति को पुत्री का नाम लेकर अपना परिचय नही दे सकती थी। इसलिए घबराहट में उस समय उन्होंने अपना परिचय देते हुवे कहा, "कौवेरी अस्मि अहं" - मेरा नाम कौवेरी है। तभी से काली का एक और नाम हो गया। संस्कृत में कौवेरी ही है पर आजकल भूल से कावेरी कहते हैं।
बहुत बाद में अर्थात शिवोत्तर तंत्र में इसी काली शक्ति को भी एक तांत्रिक देवी के रूप में ग्रहण कर लिया गया। बौद्ध तंत्र में भी इन्हें सम्मिलित कर लिया गया। पौराणिक युग में भी ये काली देवी के रूप में पूज्य हो गई। किन्तु शिव की पत्नी काली का इस कालिका शक्ति से कोई संबंध नहीं है। काली शिव की पत्नी थी - यह लगभग 7000 वर्ष पहले की बात है। जबकि जिस काली देवी को शिवोत्तर तंत्र और बौद्ध तंत्र में स्वीकृति मिली है, वह मात्र 1600 - 1700 वर्ष पहले की घटना है। इनकी पूजा कालिका पुराण पर आधारित है। अर्थात काली देवी का शिव के समय से और वैदिक युग से कोई संबंध नही है।
शिव की तीसरी पत्नी पीतवर्णा गंगा थी। ये मंगोल क्षेत्र के तिब्बत अंचल की कन्या थी। गौरी का एक पुत्र था भैरव और काली की एक पुत्री थी भैरवी और गंगा का एक पुत्र था कार्तिकेय जिन्हें कार्तिक षणमुखम, षडानन, तमिल में षणमुगम, बाल सुब्रमण्यम और मुरुगन भी कहा जाता है।
पार्वती के पुत्र भैरव धर्मनिष्ठ थे, तंत्र साधक थे। कालिका की पुत्री धर्मनिष्ठा थी और साधिका थी। किंतु गंगा के पुत्र वैसे नहीं थे। इसी कारण गंगा मन ही मन दुखी रहती थी। उनके दुख को भुलाए रखने के लिए शिव उनके साथ अत्यंत मधुर व्यवहार किया करते थे। सभी लोग कहा करते थे कि शिव गौरी या काली से इतना मधुर व्यवहार नहीं करते जितनज़ वे गंगा से करते हैं। मानो शिव ने गंगा को अपने सिर पर चढ़ा रखा है। इसी आधार पर पौराणिक युग मे लोगों ने यह अर्थ निकाल लिया कि शिव ने गंगा को अपनी जटाओं में बांध रखा है। पुराणकारों ने इसी बात को लेकर एक कहानी की रचना कर ली कि स्वर्ग से विष्णु के चरण धोकर जल उतर कर धरती पर आ रहा था, तो शिव ने उसे अपने सिर पर धारण कर लिया - वही जल वास्तव में गंगा जल है। अर्थात शिव की पत्नी गंगा को पूर्ण के रचयिता ने गंगा नदी बना दिया। वस्तुतः गंगा नदी का शिव के साथ कोई संबंध नही है।
वैदिक युग से पहले भी, मनुष्य लिंग पूजा किया करते थे। उस युग मे विभिन्न दलों में विभिन्न जनगोष्ठियों के मध्य आपस मे भयानक संघर्ष चला करता था। मनुष्य न तो दिन में सुरक्षित था न रात्रि में। इसलिए सभी दल अपने अपने दलों की संख्या वृद्धि करना चाहते थे और संख्या वृद्धि के प्रतीक के रूप में वह लिंग पूजा करते थे। यह लिंग पूजा भारत, दक्षिण पूर्व एशिया, और मध्य एशिया में अत्यधिक प्रचलित थी। मध्य अमेरिका अर्थात उत्तर अमेरिका के दक्षिण भूभाग, और दक्षिण अमेरिका के उत्तरी अंचल में भी लिंग पूजा का व्यापक प्रचलन था। कुछ लोगों का कहना है कि पहलव, पण्डा, चोल और आंध्र के शैलेन्द्र साम्राज्य के शासन काल मे यह लिंग पूजा अमरीका गई थी। मध्य अमेरिका में जो लोग लिंग पूजा करते थे उन की सभ्यता "माया सभ्यता" के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसलिए संस्कृत में अमेरिका को मायाद्वीप कहा जाता है।
प्राचीन काल से मनुष्य लिंग पूजा करता आ रहा है पर इसका कोई आध्यात्मिक या दार्शनिक संबंध नही था। जैन युग में, विशेषकर, दिगंबर जैन युग में, तीर्थंकरों की निर्वस्त्र मूर्तियों ने, मनुष्यों के मन में, लिंग पूजा के संबंध में एक नई भावना को जन्म दिया। जैन धर्म और बौद्ध धर्म के साथ साथ शैव तंत्र का परिवर्तित रूप विद्यमान था, उसे शिवोत्तर तंत्र कहा जा सकता है। उसी युग में जैन मतवाद के प्रभाव में आकर शिवोत्तर तंत्र में भी शिवलिंग की पूजा प्रचलित हो गई। प्राचीन युग की लिंग पूजा मात्र एक सामाजिक संस्कार थी बाद में वही लिंग पूजा, नई भावना ग्रहण करके दार्शनिक स्वरूप ग्रहण किया। इस परिवर्तन का काल आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्व का है। जैन युग में ये जो शिव लिंग पूजा प्रारंभ हुई यह भारतवासियों की नस नस में समा गई। शिव की पूजा में जो परिवर्तन हुवा उसने शिव के ध्यानमंत्र और बीजमंत्र में भी परिवर्तन ला दिया। यह लिंग पूजा शिव के द्वारा दिये गए तंत्र आधारित आध्यात्मिक निर्देश से पूरी तरह भिन्न है।
आज भारत के विभिन्न हिस्सों में विशेषकर राढ़ अंचल के जमीन खोदने पर अनेक बड़े-बड़े शिवलिंग मिलते हैं । सब के सब जैन युग के शिवलिंग हैं । पौराणिक शैवाचार युग में भी शिव लिंग की पूजा निरंतर होती रही । जैन युग के बाइस प्रकार के शिवलिंग हैं जैसे आदिलिंग ,ज्योतिर्लिंग ,अनादिलिंग इत्यादि। बौद्ध युग और जैन युग लगभग साथ साथ चल रहे थे। भगवान महावीर, भगवान बुद्ध से करीब 50 वर्ष बड़े थे। बौद्ध तंत्र में भी शिवलिंग की पूजा को ही अधिक प्रश्रय दिया। शिव का जो ध्यानमंत्र है, उसमें शिवलिंग की पूजा का कहीं भी उल्लेख नही है। इसलिए इस बात को याद रखना होगा कि शिवलिंग की पूजा का प्रचलन बहुत बाद में हुवा जो शिव के निर्देशानुसार बिल्कुल नही है।
शिव की यह जो विराट जनप्रियता थी, इसी कारण बौद्ध धर्म के युग मे भी कोई भी शिव की उपेक्षा नही कर सका। थोड़े से अंतर के साथ उस युग मे भी शिव की मूर्ति और शिव लिंग की पूजा स्वीकृत हुई। शिव को सम्पूर्ण देवता के रूप में न मानकर, उन्हें बोधिसत्व के रूप में माना गया। अर्थात शिव की जो मूर्ति बनाई जाती, उसके माथे पर बुद्ध की एक छोटी सी मूर्ति को रख दिया जाता। शिवलिंग की पूजा के लिए जो शिवलिंग बनाया जाता, उसके ऊपर भी बुद्ध की एक छोटी सी मूर्ति रख दी जाती। इसका उद्देश्य यह था कि शिव को सम्पूर्ण देवता नही है दिखाना, वरन शिव भी बोधिसत्त्व हैं दिखलाना। इन मूर्तियों और शिवलिंग के द्वारा यह दिखलाने का प्रयास किया जाता था कि शिव के आराध्य देवता बुद्ध हैं जो कि उनके माथे पर विराजमान हैं।
उसके बाद पौराणिक शिवाचार और पौराणिक शाक्तचार का युग आया। उस युग में भी शिवलिंग की पूजा होती थी। यह जो पौराणिक शिव हैं उनका जैन और बौद्ध तंत्र के शिव से कोई संबंध नही है। अर्थात 7000 वर्ष पुराने प्राणपुरुष शिव, और जैन युग के, बौद्ध युग के, शिवोत्तर तंत्र युग के, व पौराणिक युग के शिव एक नहीं रहे। बीजमंत्र बदलता गया, शिव का स्वरूप भी बदलता गया। बौद्ध युग और पैराणिक युग के बीच मे एक और परिवर्तन आया वह था नाथ धर्म का युग। नाथ धर्म के गुरुओं के नाम मे "नाथ" शब्द प्रयुक्त होता था, जैसे - आदिनाथ, भीमनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, गोरखनाथ, चौरंगीनाथ इत्यादि। ये सभी नाथ योगी नाथ धर्मी थे। ये नाथ धर्म बौद्ध धर्म और पौराणिक शैव धर्म के मिलन का परिणाम था। नाथ धर्म के गुरुओं को शिव का अवतार माना जाता था अर्थात उनकी मृत्यु के उपरांत मंदिर में उनकी मूर्ति की स्थापना करके उन्हें शिव का अवतार मानकर उनकी पूजा की जाती थी। इसलिए, उनके गुरुओं के नाम के अंत में जिस तरह "नाथ" शब्द प्रयुक्त होता था, उसी तरह जब वे शिव लोग शिव की पूजा करते थे तो शिव के नाम के अंत मे भी नाथ शब्द जोड़ दिया करते थे जैसे - तारकनाथ, वैद्यनाथ, विश्वनाथ, अमरनाथ, इत्यादि। ये सभी नाथ योगियों के शिव हैं। सुप्रचीन सदाशिव से इनका कोई संबंध नहीं है। ऐतिहासिक सदाशिव एवं नाथयोगियों के द्वारा प्रचलित शिव के बीच लगभग 5500 वर्षों की दूरी है। पौराणिक युगीन तंत्र का जो शिवाचार और शाक्तचार था, उसमें भी शिव लिंग की पूजा का प्रचलन था। किंतु वह अपने शिव को अलग पहचान देने के लिए, शिव के नाम के अंत मे "ईश्वर" शब्द प्रयुक्त करते थे जैसे तारकेश्वर, रामेश्वर, त्रयंबकेश्वर, इत्यादि। कालांतर में नाथ योगियों के शिव और पौराणिक शिवाचार के शिव आपस मे घुल मिल गए।
यही शिव का परिचय है। कहीं नाथ, कहीं ईश्वर, कहीं नाथ योगी, कहीं पौराणिक शैवाचार। इन सभी का बीजमंत्र "हौं" है। अपने जीवनकाल में शिव सभी के अत्यंत निकट हो गए थे। सभी के मन प्राण में बस चुके थे इसलिए उनकी पूजा किसी बीजमंत्र के माध्यम से नही होती थी। किंतु बाद में, अर्थात जैन तंत्र, बौद्ध तंत्र और शिवोत्तर तंत्र के युग में, शिव का बीजमंत्र "ऐं" हो गया। अथर्ववेद के समय तंत्र युग भी चल रहा था और अथर्ववेद तंत्र से प्रभावित भी था। ओंकार का विश्लेषण करने पर हम उसमें 50 ध्वनियों का समागम पाते हैं। ये ध्वनियाँ काल शक्ति से उपजी हैं और शाश्वत हैं। अर्थात महाकाल की इन शक्तियों, इन ध्वनियों में काल का प्रवाह के साथ साथ उत्थान पतन होता रहेगा किंतु ये ध्वनियाँ अनादि काल से लेकर अनंत काल तक विद्यमान रहेंगी। बीज मंत्र के परिवर्तन को देखकर ही यह समझा जा सकता है कि इन सभी शिवों का 7000 वर्ष पुराने ऐतिहासिक शिव से कोई संबंध नहीं है।
इसके उपरांत आते हैं लौकिक शिव। सदाशिव का प्रभाव जनमानस में इतना ज्यादा था कि वह सभी के प्राणों के देवता बन गए। उन्हें पूजने के लिए किसी को खास जाती या वर्ण का होने की जरूरत नही थी और न ही किसी बीजमंत्र की उन्हें आवश्यकता थी। वे जनसाधारण, अशिक्षित शुद्र, अशिक्षिता नारी, जिन्हें वेद पढ़ने का अधिकार नहीं था - इन सभी के थे। अन्त्यज शुद्र जिन्हें वेद के मंत्र सुनने का अधिकार नही था, जो ओंकार नही सुन सकते थे, जो गायत्री मंत्र अर्थात सावित्री ऋक भी नही सुन सकते थे। नारी चाहे जितनी भी पढ़ी लिखी हो उन्हें वेद पढ़ने और सुनने का अधिकार नहीं था। सुविधाभोगी लोग कहा करते थे कि साधना जगत में नारी चाहे जितनी प्रगति कर ले किंतु मृत्योपरांत उसे पुरुष के रूप में जन्म लेना पड़ेगा, तभी उसे मुक्ति मोक्ष मिलेगा अन्यथा नहीं। शिव ने इस तरह की विचारधारा को छिन्न भिन्न कर दिया। अपने त्रिशूल के आघात से उनके टुकड़े टुकड़े कर दिए।
वही शिव समाज के अन्तःस्थल में समा गए। आज जो छोटे छोटे बच्चे और बालिकाएं मिट्टी का शिवलिंग बनाते हैं। फिर मिट्टी का दिया बनाकर, उसमें थोड़ा सा घी डालकर, रुई की बत्ती बनाकर, उसे प्रज्जवलित कर के शिव की आरती उतारते हैं वह है लौकिक शिव। मिट्टी के मनुष्यों के मिट्टी के देवता। इस शिव की पूजा करने के लिए किसी बीजमंत्र की आवश्यकता नहीं, किसी ध्यानमंत्र की अनिवार्यता नहीं, किसी प्रणाममंत्र या आचार्य और पुरोहित का प्रयोजन नहीं। अपनी अपनी लौकिक भाषा मे, इसी शिव को दीर्घकाल से लोग पूजा करते चले आ रहे हैं। सिर झुकाकर "नमः शिवाय नमः" कहते हैं और सोचते हैं - "मेरे आशुतोष इसी से संतुष्ट हो जाएंगे।"
7000 वर्ष बाद भी मनुष्य शिव को भूल नहीं सका है। शिक्षित, अशिक्षित, अन्त्यज शुद्र कोई भी उन्हें नही भुला है। शिव सरल हृदयता की चरम अभिव्यक्ति के मूर्तरूप थे। शिव की सरलता की अनेक कहानियाँ हैं। शिव ने लोगों को सिखाया है - "साहसी बनो, धर्म के प्रति निष्ठावान रहो, किंतु सरलता का त्याग मत करो। सदैव सीधे रास्ते पर चलो।" शिव की सरलता के प्रतीक थे। तभी तो लोगों ने शिव के व्यष्टित्व में देवत्व की पूर्ण महिमा के दर्शन किया था। मिट्टी के मनुष्य में समस्त ऐश्वर्यों का समावेश देखा था। इसी कारण सभी जाति और सभी वर्ण के विद्वान, अविद्वान और बाकी सभी लोगों ने शिव के चरणों मे समर्पण करते हुवे कहा था :-
"निवेदयामि चात्मानं त्वं गति परमेश्वरा।"
[अर्थात - मैं, स्वयं को पूरी तरह तुम्हें समर्पित करता हूँ। तुम ही मेरे अंतिम शरण स्थल हो। तुम ही मेरी जीवन यात्रा का अंतिम पड़ाव हो।]
श्री श्री आनंदमूर्ति
"नमः शिवाय शान्ताय"
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