सकारात्मक सोच मनुष्य को उर्जावान और निर्भीक बना देता है।
हमेशा सकारात्मक सोच और भक्ति रूपी पूंजी को बचा कर रखना चाहिए। ईश्वर अनुभूति से बड़ा कोई धन नहीं होता है ।
धर्म के पथ पर चलना कठिन तो है, लेकिन असंभव नहीं है ।
गुरु की कृपा और भक्ति रूपी प्रेम ही एक मात्र धर्म पथ का साथी होता है ,इस वास्तविकता को हर मनुष्य को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए ।
गुरु ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही गुरु है।
संसार के समस्त जड़-चेतन में एक ही ब्रह्म की उपस्थिति है ।
इसलिए उन्हें भी ब्रह्म समझ कर ही सेवा करना चाहिए और आध्यात्मिक पथ पर चलने और ईश्वर अनुभूति के लिए ही केवल उपयोग करना चाहिए।
योग और तंत्र दोनों एक कागज के दो पृष्ठ है ।
जहां योग जीवात्मा को परमात्मा में एकीकरण की साधना मार्ग बताते हैं ,
वहीं तंत्र भी मन के जड़ता रूपी निद्रा भंग कर मन को असीम में मिलाकर कर मन को त्राण कर परमात्मा में स्थापित करने का मार्ग बताते हैं।
धर्म का तात्पर्य ही है बृहत की एषणा करना और अनन्त ब्रह्म को प्राप्त करना जो कि आनन्द स्वरूप है ,दिव्य स्वरूप है, और एक ही है वे निराकार भी है और गुरु रूप में साकार भी है।
धर्म पथ पर चलने के लिए शक्ति और भक्ति दोनों चाहिए।ये दोनों गुरु कृपा से ही संभव है।
गुरु कृपा पाने के लिए एक ही उपाय है ईष्ट के प्रति निष्ठा, श्रद्धा, विश्वास और प्रेम एवं सोलह आना आत्मसमर्पण कर उनकी भक्ति में लीन हो जाने से वे कृपा सिंधु है वे दयानिधि है वे दया कर कृपा कर ही देते हैं।
परम ब्रह्म केवल अपना काम निष्काम भाव से जो भक्त करते हैं,उसी से वे अपने आदर्श की प्रतिष्ठा कराते हैं उसे ही वे अपने प्रतिनिधि बनाकर समाज में प्रतिष्ठित करतें हैं ।
परमपुरुष हमेशा समता भाव में रहते उसके लिए सभी सामान है किन्तु जो अपने जीवन में धर्म के पथ को स्वीकार कर, आध्यात्म पथ का आलंबन कर , भक्ति के साथ , साधन,सेवा और त्याग के साथ उनके निर्देश को मान कर चलते हैं वे ही उनके उपस्थिति का अनुभव करते हैं।
आचार्य दयाशिखरानन्द अवधूत
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